ग़ज़ल
चाहत सी हो गयी है तेरे यूँ ख़ुमार की ।
पैमाना बन गया हूँ तेरे ऐतबार की।
लगने लगा है घर तेरा मैख़ाने की तरह I
रहती है तलब अब तो तेरे इंतज़ार की ।
मौसम भी इस तरह से आजकल ख़राब है ।
बारिश भी लग रही है दुश्मन बहार की ।
बुत बन गयी हैं चाहतें हमारी इस तरह ।
चलता हूँ लड़खड़ाती है राहें भी प्यार की ।
अब तो ‘महज़’ तुम्हारे सिवा ग़र कहीं रहूँ।
लगती है ज़िन्दगी ये हमारी उधार की ।