ग़ज़ल – ज़िंदगी इक फ़िल्म है -संदीप ठाकुर
ज़िंदगी इक फ़िल्म है मिलना बिछड़ना सीन हैं
आँख के आँसू तिरे किरदार की तौहीन हैं
एक ही मौसम वही मंज़र खटकने लगता है
सच ये है हम आदतन बदलाओ के शौक़ीन हैं
नींद में पलकों से मेरी रंग छलके रात भर
आँख में हैं तितलियाँ तो ख़्वाब भी रंगीन हैं
राह तकती रात का ये रंग है तेरे बिना
चाँद भी मायूस है तारे भी सब ग़मगीन हैं
उँगलियों पे गिन मिरी तन्हाइयों के हमसफ़र
इक उदासी जाम दूजा याद तेरी तीन हैं
क़ाएदे से कब जिया है ज़िंदगी मैंने तुझे
मैं तिरा मुजरिम हूँ मेरे जुर्म तो संगीन हैं
ख़ुशनुमा माहौल था कल तक थिरकते थे सभी
आज आख़िर क्या हुआ है लोग क्यों ग़मगीन हैं
संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur