ग़ज़ल
एक मुद्दत से नहीं सोया हूँ घर में यारों
ज़िन्दगी बीत गई सिर्फ़ सफ़र में यारों
सारी दुनिया को इनायत से नवाज़ा है मगर
एक बस मैं ही नहीं उसकी नज़र में यारों
पेट की आग से जलता है लहू भूखे का
दीप जलते नहीं इस आग से घर मे यारों
केमिकल रिश्तों के पेड़ों में भी जब लगने लगे
तब से लज़्ज़त न रहा अब के समर में यारों
चाहे जितनी भी मरासिम की हो गहराई मगर
अब वो सच्चाई नहीं मिलती बशर में यारों
जिसने माँ बाप को छोड़ा है अनाथालय में
डूबती उसकी ही कश्ती है भँवर में यारों
जाने कब मौत का फ़रमान यहाँ मिल जाये
ध्यान से चलना है प्रीतम को सफ़र में यारों
प्रीतम श्रावस्तवी