*ग़ज़ल*
ग़ज़ल
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ज़माने से तू बेख़बर हो गया है।
मोहब्बत का जबसे असर हो गया है।।
दिवाना सा फ़िरता हमारी गली में।
तुझे रोग अब इस क़दर हो गया है।।
दुआ है ख़ुदा से तुझे इल्म दे दे।
मग़र सब दुआ बेअसर हो गया है।।
रहा उम्र भर संग तू उसकी जानिब।
अधूरा मग़र ये सफ़र हो गया है।।
कहानी मेरे “रहमत” लब से बयां है।
ग़ज़ल ये तुम्हारे नज़र हो गया है।।
ग़ज़ल ये तुम्हारी
शेख रहमत अली “बस्तवी”
बस्ती (उ, प्र,)