ग़ज़ल
ग़ज़ल
इस हिज्र के मौसम में तूफान उठाने को
तुम याद बहुत आए हलचल सी मचाने को।
इक घर की जुस्तजू में ये क़ब्र पाई हमने
दो गज ज़मीन माँगी थी सर अपना छुपाने को।
मंजिल तलक तो खुद ही जाऊँगी मैं अकेले
तुम मेरे साथ रहना बस अज़्म बड़ाने को।
“मगर बात तो ज़रूर कोई रह जाती है ,
कोई बात भुलाने को तो कोई बात बताने को ।।”
अब जाम किसने पाया
क़िस्मत की बात है
साकी तो मिला सबको पीने को पिलाने को।
फूलों ने कहा अपना ये कैसा मुक़द्दर है अर्थी पे चढ़ाने को ज़ुल्फों में सजाने को।
आँखों ने “निधि” मेरी बहना तो बहुत चाहा
मैं कैसे लुटा देती अश़्कों के ख़ज़ाने को।
अज़्म-हौसला
– निधि भार्गव