#ग़ज़ल-
#ग़ज़ल-
■ क़ायनात तन्हा है।।
【प्रणय प्रभात】
दिन भी तन्हा है रात तन्हा है।
सोच तन्हा है बात तन्हा है।।
अपनी तन्हाई से डरूं कैसे?
जबकि कुल क़ायनात तन्हा है।।
मेरी तन्हाई से ख़ुदा को क्या?
उसकी ख़ुद अपनी ज़ात तन्हा है।।
लाख फ़िरकों का नाम है दुनिया।
इसमें अपनी जमात तन्हा है।।
हादसों में नहीं है दिल-शिकनी।
सब में ये वारदात तन्हा है।।
साथ ख़ुद आदमी नहीं देता।
आदमी की बिसात तन्हा है।।
साथ हारे का कौन देता है।
शह की मानिंद मात तन्हा है।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)