ग़ज़ल
गिरगिट की तरह रंग बदलतें हैं लोग क्यों
चेहरे से अपने रोज उतरतें हैं लोग क्यों
यह जानते हुए कि हस्र ज़िन्दगी का क्या
जी करके भी बेमौत यूँ मरतें हैं लोग क्यों
मकड़ी की तरह जाल वो बुनतें हैं भरम के
ख़ुद के बिछाए जाल में फँसतें हैं लोग क्यों
किस्मत को बनाने में हो जातें हैं बरबाद
हाथों की लकीरों में उलझतें हैं लोग क्यों
बुझती नही है आग कभी आग से कहीं
पानी में लगा आग फिर जलतें हैं लोग क्यों