ग़ज़ल
जहाँ थे ख़्वाब ख़ुशरंगीं वहाँ फैली उदासी है
न जाने ख़्वाब सच थे या अभी सच्ची उदासी है
बचा कुछ भी नहीं है अब बदन ये सिर्फ़ मिट्टी है
नमी है आँसुओं की और थोड़ी सी उदासी है
अजब सी ज़िंदगी हमने गुज़ारी साथ में ऐसे
उधर हैं कहकहे उसके इधर मेरी उदासी है
मेरा दामन वो भरना चाहता है दर्द से शायद
रज़ा उसकी यही है तो रज़ा मेरी उदासी है
मैं लेकर ख़ाक मुट्ठी में ज़मीं पर छोड़ देती हूँ
मुझे सब पूछते हैं जब कहो कैसी उदासी है?
अभी तो याद भी आती नहीं मुझको कभी उसकी
यही है मसअला जिसके सबब अब भी उदासी है
चलो छोड़ो मेरा क़िस्सा यहाँ है क्या सिवा इसके
यहॉं कल भी उदासी थी यहाँ अब भी उदासी है
सुरेखा कादियान ‘सृजना