मुंतिजर में (ग़ज़ल)
इस चमन में प्यार की आबोहवा कब आएगी
मुंतिजर में है सुकूं वाली निशा कब आएगी
ये शरारत भाव खाना माना अच्छी हैं मगर
तितलियों सी यूं हसीं नाजों अदा कब आएगी
ज़िंदगी रब्बा अंधेरों में गुजारूं कब तलक
मेरी दुनिया में कोई बनके शमा कब आएगी
लगता है ऐसा कई सदियों से प्यासी है जमीं
झूम कर यूं मस्त सावन की घटा कब आएगी
मुंतिजर में हैं निगाहें और दिल में जुस्तुजूं
शहर मेरे लौट कर वो दिलरुबा कब आएगी
ढल रही है शाम यारों रफ्ता रफ्ता जीस्त की
नाम हो मशहूर अपना ये कला कब आएगी
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल