ग़ज़ल
हम उनकी क़ैद से कुछ क्षण को क्या बाहर निकल आये
उन्हें चिंता है कैसे चीटियों के पर निकल आये
वो जिस बस्ती को पूरे मुल्क की गद्दार कहते हैं
अगर ढूँढें तो उस बस्ती में उनका घर निकल आये
हमारा ध्यान थोड़ा-सा अगर भटके तो मुमकिन है
जो रहबर है उसी की जेब से पत्थर निकल आये
नशा उनको है सरकारी ज़मीनों को हड़पने का
वो हरदम खोजते हैं कब कहाँ बंजर निकल आये
अगर हमसे शिकायत है तो ढूँढो दूसरा आशिक
ये मुमकिन है कि कोई ‘नूर’ से बेहतर निकल आये
✍️ जितेन्द्र कुमार ‘नूर’