#ग़ज़ल
#ग़ज़ल
■ बो देता था मैं…!!
● पल में अश्क़ों से पलक अक़्सर भिगो देता था मैं।
एक मामूली ख़ुशी पे ख़ुश भी हो देता था मैं।।
● बचपने में जानता था
कुछ भी पाने का हुनर।
कोई हसरत छेड़ती थी
सिर्फ़ रो देता था मैं।।
● इस हथेली को भी बस
उस पीठ की पहचान थी।
जिस पे थप्पी मार कर
हौले से खो देता था मैं।।
● उम्र जब अल्हड़ थी तब
उसके तक़ाज़े थे अलग।
एक दिल दिन भर में बीसों
बार खो देता था मैं।।
● आज ख़ुद अपने लिखे
अक्षर समझ आते नहीं।
दौर था काग़ज़ पे जब
मोती से बो देता था मैं।।
● दौर वो अब से जुदा था
दिल में इक सैलाब था।
तब पराए ज़ख़्म तक
अश्क़ों से धो देता था मैं।।
◆प्रणय प्रभात◆
श्योपुर (मध्यप्रदेश)