ग़ज़ल
मैं उसकी राह में शब भर दिया बनकर जला करता
भले मुझ बिन ही होती पर सहर होती, दुआ करता
किया जब इश्क़ मैंने ही, थी देखी राह भी मैंने
ख़ुदारा भूलने का भी मुझे ही हक़ अता करता
वो क्यूँ चुपचाप बैठा है छुपाकर हाल ए दिल मुझसे
वफ़ा करता कभी मुझसे, ख़फा होता, गिला करता
मरासिम तो बहुत थे पर निभाये सिर्फ़ मैंने थे
किसी से तो कभी वो भी ख़बर मेरी पता करता
दिया था ज़िंदगी ने बस उसी के नाम का परचा
उसे ही याद करना था, न करता मैं तो क्या करता
ये ख़्वाहिश भी तुम्हारी थी तुम्हीं को लौट जाना था
नहीं तो मैं कभी तुमसे भला क्यूँकर दग़ा करता ?
सुरेखा कादियान ‘सृजना’