ग़ज़ल
बहके हुए हैं लोग नज़र की ज़बान से
ख़ुद का मकान देख ग़ैर के मकान से
कुछ भी कहो सबको सभी आज़ाद हैं
पी रहें सभी हैं ज़हर अपने कान से
साँसें बँधी है ग़ैर की साँसों की डोर से
इतरा रहें कुछ लोग ख़ुदी की गुमान से
ग़म को खरीदतें है खुशियों को बेचकर
यूँ है तिज़ारत ज़िन्दगी ऐसी दुकान से
होठों पे सूखती है आकर के फिक्र यूँ
बिखरे हुए हैं लोग चाहतों की शान से
ख़ामोश बदतमीजियों पे रहना ठीक है
माहौल यूँ बीमार है ज्यादे निदान से
लगता है ‘महज़’ रास्ता है इंकलाब का
बन जायेगा नज़रिये के आँधी तूफान से