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25 Jan 2023 · 1 min read

ग़ज़ल

समझ लेते हो जब तुम अपनों का दुख
समझते क्यों नहीं फिर औरों का दुख

मेरा दुख था कि मैं उस को खो दूँगा
उसे था मेरे जैसे कितनों का दुख

तुम्हारे जैसे गुल को खोने के बाद
समझ सकता हूँ मैं इन भौंरों का दुख

मुहब्बत ऐसी पहली वालिदा है
जिसे भाता है अपने बेटों का दुख

शजर को काटने वाला कोई शख़्स
भला क्या जाने टूटे रिश्तों का दुख

कभी तो बोसे दो बिन मांगे मुझ को
कभी तो समझो तुम इन होंठों का दुख

नहीं बन सकते बच्चे दुख बड़ों के
बड़ा हो जाना है सब बच्चों का दुख

शमा तू देख जलता जिस्म अपना
शमा तू देख मत परवानों का दुख

मुहब्बत ने दी है नाकामी मुझ को
विरासत में मिली है पुरखों का दुख

न पाना लम्स तेरा दुख बदन का
न मिलना दीद तेरा आँखों का दुख

ज़बीं से पहले उस ने हाथ चूमे
पता था उस को मेरे हाथों का दुख

मेरी आँखों से बेहतर कौन समझे
किन्हीं आँखों के उजड़े सपनों का दुख

किसी भी वालिदा के ग़म के आगे
है फीका फीका अच्छे अच्छों का दुख

हमारे दरमियाँ की बातें जो थी
मुझे है बस उन्हीं कुछ बातों का दुख

मैं भी अब शायरी करता हूँ “जाज़िब”
हाँ मेरे ज़हन में है यादों का दुख
© चन्दन शर्मा “जाज़िब”

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