ग़ज़ल
समझ लेते हो जब तुम अपनों का दुख
समझते क्यों नहीं फिर औरों का दुख
मेरा दुख था कि मैं उस को खो दूँगा
उसे था मेरे जैसे कितनों का दुख
तुम्हारे जैसे गुल को खोने के बाद
समझ सकता हूँ मैं इन भौंरों का दुख
मुहब्बत ऐसी पहली वालिदा है
जिसे भाता है अपने बेटों का दुख
शजर को काटने वाला कोई शख़्स
भला क्या जाने टूटे रिश्तों का दुख
कभी तो बोसे दो बिन मांगे मुझ को
कभी तो समझो तुम इन होंठों का दुख
नहीं बन सकते बच्चे दुख बड़ों के
बड़ा हो जाना है सब बच्चों का दुख
शमा तू देख जलता जिस्म अपना
शमा तू देख मत परवानों का दुख
मुहब्बत ने दी है नाकामी मुझ को
विरासत में मिली है पुरखों का दुख
न पाना लम्स तेरा दुख बदन का
न मिलना दीद तेरा आँखों का दुख
ज़बीं से पहले उस ने हाथ चूमे
पता था उस को मेरे हाथों का दुख
मेरी आँखों से बेहतर कौन समझे
किन्हीं आँखों के उजड़े सपनों का दुख
किसी भी वालिदा के ग़म के आगे
है फीका फीका अच्छे अच्छों का दुख
हमारे दरमियाँ की बातें जो थी
मुझे है बस उन्हीं कुछ बातों का दुख
मैं भी अब शायरी करता हूँ “जाज़िब”
हाँ मेरे ज़हन में है यादों का दुख
© चन्दन शर्मा “जाज़िब”