ग़ज़ल
बहुत लोगों की नजरों से हम ताड़े जा रहे हैं।
जमे हैं पैर जो मेरे उखाड़े जा रहे हैं।
बड़ी मुश्किल से झुग्गी झोपड़ी अपनी बनी थी।
अवैध कहकर वही बस्ती उजाड़े जा रहे हैं।
जो सच्ची बात है मुन्दर्ज तारीखी किताबों में।
किताबों से वही औराक फाड़े जा रहे हैं।
नई सरकार सबसे इंतकामन काम लेती है।
अभी सच बोलने वाले लताडे जा रहे हैं।
हुकूमत,हुकमरां, मनसब,रियाया
अब नहीं कोई।
यहां कब्रों से अब मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं।
सलीका़ और अदब जिनको नहीं है।
कागजी शेर हम पर वोह दहाड़े जा रहे हैं।
हमारे गांव भी सुन लो सियासत के अखाड़े हैं ।
“सगीर” शह मात देकर सब पछाड़े जा रहे हैं।
डॉक्टर सगीर अहमद सिद्दीकी