ग़ज़ल
बहार बाग़े इरम और रंगो-बू क्या है
तेरे बग़ैर मुझे इनकी आरज़ू क्या है
गिरा दिया है जो तुमने मुझे निगाहों से
तुम्हारी आँख में मुझ जैसा हू-ब-हू क्या है
तुम्हारे दिल की रियासत पे राज है मेरा
मेरे लिए ये भला दिल्ली-लखनऊ क्या है
ये एक चेहरा कि जिससे हसीन है मंज़र
अगर ये तू नहीं तो मेरे रू-ब-रू क्या है
ज़रा सी चोट से ये चूर-चूर हो जाये
ये आदमी है या शीशा है या सुबू क्या है
जिसे भी देखो वही होश में नहीं है अब
कोई बताये कि गेसूए-मुश्कबू क्या है
ज़रा सी बात पे चलते हैं खंजरो नश्तर
हमारे शह्र में अब क़ीमते लहू क्या है
✍️जितेन्द्र कुमार ‘नूर’
असिस्टेंट प्रोफेसर
डी ए वी पी जी कॉलेज आज़मगढ़