ग़ज़ल
फिक्र क्यों कुछ जो बेहिसाब नज़र आतें हैं
ज़िन्दगी भर के वो जबाब नज़र आतें हैं
चला हूँ दूर तलक उम्र गवाह है इसका
खुशी में फिर क्यों इंकलाब नजर आतें हैं
सकूँन की हरेक रात ख़्वाब लाये हंसी
हजारों फिर क्यों आफताब नजर आतें हैं
अगर वेफिक्र हैं वो मंजिलों के वास्ते तो
शिकन में फिर क्यों वो जनाब नजर आतें हैं
नज़रिया देखने का जिसका बुरा होता है
सभी इंसां उसे ख़राब नजर आतें हैं
जिन्हें एहसास ख़ूबसूरती की होती “महज़”
उनको काँटों में भी गुलाब नजर आतें हैं