ग़ज़ल
ज़माने के लिए तो मर चुका हूँ
सहारा है तिरा सो जी रहा हूँ
मुकम्मल ही समझना फिर मुझे भी
फ़क़त अब क़त्ल होना रह गया हूँ
भुलाने की है ज़िद्द-ओ-जहद जिसको
तुम्हारे इश्क़ का वो सिलसिला हूँ
जिसे अपनी मुहब्बत कह रही हो
वो कोई और है, और मैं दूसरा हूँ
मुहब्बत की नवाज़िश मौत ही है
मुझे मारो, अभी मैं अधमरा हूँ
मुहब्बत का असर मुझ पर नहीं है
यूँ ही पत्थर से मैं सर पीटता हूँ
सज़ा मुझको अता कर तू मुनासिब
ख़ता ये है कि तुझ को चाहता हूँ
“शफ़क़” को खोजने निकला हूँ जबसे
तभी से ख़ुद कहीं पर लापता हूँ
©Sandeep Singh Chouhan “Shafaq”