ग़ज़ल
ग़ज़ल….
आवाज़ भी नहीं अब देती सुनाई शायद
जनता की कर रहे हैं वो रहनुमाई शायद ।
बुझते ही लौ के दीपक अपना वज़ूद खोया
यूँ दोस्ती दिये ने लौ से निभाई शायद ।
धुँधला सा अक्स उसका रहता है जहन में बस
तस्वीर भी किसी दिन देगी दिखाई शायद ।
बेचा ज़मीर अपना ख़बरें बदल के छापीं
अख़बार से लगी थी थोड़ी कमाई शायद ।
वो शख़्स मुफ़लिसी में आखिर मरा तो कैसे
कुछ देर से ही उसकी आयी दवाई शायद ।
– अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद