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23 Mar 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

मिसरा-कहीं जहां में वफ़ा नहीं है।
वज्न- 12122– 12122
काफ़िया-आ
रदीफ़-नहीं है

नज़र मिलाना ख़ता नहीं है।
कहीं किसी से छिपा नहीं है।

सदा मुहब्बत निभाई हमने
मिटाया’ खुद को गिला नहीं है।

फ़रेब उल्फ़त कहूँ मैं’ किससे
सितम ढहाना नया नहीं है।

लुटा दिये ज़िस्म जान उस पर
कभी जो’ मेरा हुआ नहीं है।

भुलाना’ चाहूँ भुला न पाऊँ
बसा वो’ दिल में जुदा नहीं है।

पढ़ी न जिसने किताब दिल की
वो’ कुछ भी’ हो पर खुदा नहीं है।

दिया जलाए निहारे ‘रजनी’
कहीं जहां में वफ़ा नहीं है।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी, उ. प्र.
संपादिका-साहित्य धरोहर

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