ग़ज़ल
मेरी नई ग़ज़ल आपकी नज़्र…….
हुआ एक अरसा कहा कुछ नहीं है।
सबब बोलने का रहा कुछ नहीं है।।
जो भर आँख आईं तकब्बुर में बोले
महज़ है ये पानी बहा कुछ नहीं है।
जफ़ाओं से उनकी फ़ना जिस्म जां है
वो कहते रहे हैं ढहा कुछ नहीं है।
जो आँधी चली शाख से बिछड़े पत्ते
कि बदली फिज़ा बे वजहा कुछ नहीं है।
रखो सब्र गुरबत से कहती अमीरी
वो कैसे कहें कि सहा कुछ नहीं है।
हुई इब्तिदा इंतहा किसने देखी
कि इस जीस्त में अब रहा कुछ नहीं है।
महक है ये लफ्ज़े मुहब्बत सुख़नवर
कि इससे अजीज़ लमहा कुछ नहीं है।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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