ग़ज़ल
ये लग रहा है इबादत में हो गया नाकाम।
मैं जब से उन की मुहब्बत में हो गया नाकाम।
हुनर उसे नहीं आता था झूठ बोलने का।
इसी लिए वो सियासत में हो गया नाकाम।
मैं चाह कर भी नहीं जा सका ख़िलाफ़ उस के।
मैं अपने दिल से बग़ावत में हो गया नाकाम।
वो बे निक़ाब दरीचे मेें आज आया नहीं।
मैं उस की दीद की हसरत में हो गया नाकाम।
है मेरा कासा ए उम्मीद आज भी ख़ाली।
तू मेरे दोस्त सख़ावत में हो गया नाकाम।
मुसीबतों से न तू बाग़ को बचा पाया।
कि बाग़बाँ तू हिफ़ाज़त में हो गया नाकाम।
मिरे ख़िलाफ़ हमेशा जो बोलता था क़मर।
वो आज मेरी मज़म्मत में हो गया नाकाम।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी