ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
ढूंढ आया हूं कई आज और कल।
तेरा मिलता ही नहीं कोई बदल॥
कुछ उमीदें ना ज़माने से रख
काम आता है बस अपना ही बल॥
वह तड़प उठते हैं पारे की तरह
दिल-ए-बेताब, ज़रा तू भी मचल॥
हर क़दम सोच-समझ कर ही उठा
लोग गिरते हैं मगर तू तो संभल॥
सोचता हूं तो सहम उठता हूं
ज़ख्म दे जाएगा फिर कौन सा पल॥
कोई का़बू ना रहा खु़द पे हमें
आंख से आंसू भी जाते हैं फिसल॥
तू समझ ले तो बहुत है आक़िब
कह चुका तेरे लिए मैं ये ग़ज़ल॥