ग़ज़ल
‘खुदाया कभी भी रिहाई न दे’
उड़ें पर लगाकर सुझाई न दे।
उन्हें सर ज़मीं पर खुदाई न दे।
वफ़ा जो निभाते दिलों में बसे
उन्हें भूलकर भी जुदाई न दे।
जिसे हसरतों ने जलाया यहाँ
उसे ज़िंदगी में रुलाई न दे।
मुहब्बत से’ रिश्ते सँवरते यहाँ
किसी के दिलों में लड़ाई न दे।
किए ज़ुल्म जिसने बना बेरहम
खुदाया कभी भी रिहाई न दे।
खिलाकर चमन शूल दामन लिए
हँसे वो यहाँ ग़म दिखाई न दे।
चले चाल ‘रजनी’ ज़माने में जो
निभाए वफ़ा वो दुहाई न दे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’