ग़ज़ल
—–ग़ज़ल—–
वो मुझे तड़पा रहे हैं
गैर के संग जा रहे हैं
ये जो मंज़र आ रहे हैं
देख कर घबरा रहे है
खोल कर वो ये पिटारा
मन ही मन पछता रहे है
जल न जाए आदमीयत
आग जो भड़का रहे हैं
तल रहे हैं हम पकौडे
वो समोसे खा रहे हैं
नेकियाँ वो भूल कर सब
ज़ुल्म हम पर ढा रहे हैं
हम समझते हैं कि “प्रीतम”
प्रेम रस बरसा रहे हैं
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती [उ०प्र०]