ग़ज़ल
—ग़ज़ल—
बुज़ुर्गों का मैं अदब से सलाम करता हूँ
दुआएँ लेके ही फिर कोई काम करता हूँ
मिले जो राह में मुझसे कोई तो पहले ही
बडे खुलूस से मैं राम राम करता हूँ
वो चाहे हिन्दू हो या चाहे वो मुसलमाँ हो
खुदा के बन्दों का मैं एहतराम करता हूँ
रक़ीब कोई नहीं सबको मानूँ मैं अपना
इसी से सबके दिलों में मुकाम करता हूँ
इबादतों में है शामिल मेरा खुदा यारो
उसी का सिज़्दा यहाँ सुब्हो शाम करता हूँ
बुराइयों की तरफ़ गर क़दम बढें मेरे
खुदा का नाम लूँ और रोकथाम करता हूँ
न चाहतें हैं मेरी काशी और काबा की
मैं माँ के चरणों में ही चारो धाम करता हूँ
ये जिन्दगी तो फ़ना होनी है मेरी “प्रीतम”
ये पायदान है अंतिम क़याम करता हूँ
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)