ग़ज़ल
———ग़ज़ल——
मौसम है मुहब्बत का न मिलने से मना कर
दिखला दे झलक चाँद का जुल्फ़ों को हटा कर
जो तुझसे वफ़ा करता हो तू उससे वफ़ा कर
ऐ दोस्त मुहब्बत का ये हक़ तू भी अदा कर
ग़म के ये अँधेरे तो तुम्हें छू न सकेंगे
मैं ख़ुद को जला दूँगा सनम शम्अ बना कर
पैमाना मेरी आँखों में मयख़ाना बदन है
आ पी जा मुझे आज तू होंटो से लगा कर
कब से मैं तड़पता हूँ बहा प्यार का दरिया
सहरा न दिखा दिल में मेरे प्यास जगा कर
छोड़ूँ गा नहीं साथ तेरा ग़म भी बँटाऊँ
ले लूँगा तेरा दर्द सनम तुझको हँसा कर
फुर्क़त के अलम से कहीं मर जाऊँ न “प्रीतम”
बीमार मैं तेरा हूँ . मुहब्बत से दवा कर
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)