[[[ ग़ज़ल ]]]
ग़ज़ल —
“मगर वह दबदबा जाता रहा बाजार होते ही”
१२२२_१२२२_१२२२_१२२२
काफिया — बाजार
रदीफ — होते ही
अकेले हूँ… गये बेटे…. मिरे लाचार
होते ही !
दिखेंगे दिन भी अब ऐसे मिरे बीमार
होते ही !!
कभी मैं ही हुआ करता खुदा हर बे-
सहारों का,,
गई.. वो शान मेरी अब नई सरकार
होते ही !!
वतन के दुश्मनों खुद को छुपा लेना
पहाड़ों में,,
कभी छोड़ा किसी को शेर ने खूँखार
होते ही !!
अभी मेरी कलम पैगाम देती है अमन
सुख का,,
नहीं तो आग… उगलेगी यही तलवार
होते ही !!
बड़ी थी पैठ.. मेरी भी बड़े जलसों के
घेरे में,,
मगर… वह दबदबा जाता रहा बाजार
होते ही !!
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दिनेश एल० “जैहिंद”
18. 12. 2018