ग़ज़ल
——-ग़ज़ल——
भूल कर ख़ुद को कभी ख़ार नहीं मानूँगा
हाँ मगर साहिबे क़िरदार नहीं मानूँगा
ख़ाक है ख़ाक में इक रोज़ तो मिल जाना है
ज़िस्म फ़ानी पे मैं अधिकार नहीं मानूँगा
लूट कर भागे निवाला जो हमारे मुँह से
देश का उनको परस्तार नहीं मानूँगा
एक रोटी जो खिला दूँ मैं किसी भूखे को
तो कभी खुद को मैं ज़रदार नहीं मानूँगा
जिस भी परिवार में साया न बुज़ुर्गों का हो
ऐसे परिवार को परिवार नहीं मानूँगा
आके साहिल पे डुबो दे जो मेरी क़श्ती को
नाख़ुदा तेरा वो पतवार नहीं मानूँगा
हाथ फैलाना पड़े सारे जहां में “प्रीतम”
इतना खुद को कभी लाचार नहीं मानूँगा
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)