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7 May 2019 · 1 min read

ग़ज़ल

1-
——–ग़ज़ल—–
आदमी की ये बची पहचान है
शक़्ल इंसां की मगर हैवान है

रख के ये इंसानियत को ताख़ पर
आज कितना गिर गया इंसान है

भूल कर माँ बाप की ख़िदमत को ये
दे रहा दौलत की खातिर जान है

अब दुआओं का ख़ज़ाना छोड़ कर
दे रहा दौलत की खातिर जान है

अब तो नफ़रत के सिवा कुछ भी नहीं
प्यार की रह दूर तक सुनसान है

जो बदलता रंग गिरगिट की तरह
फिर समझना उसको क्या आसान है

इस मतलबी दौर में इंसान के
दिल में “प्रीतम” अब कहाँ ईमान है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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