ग़ज़ल
——ग़ज़ल—–
भाई का हक़ छीन के खाना मेरे बस की बात नहीं
बेइमानों में नाम लिखाना मेरे बस की बात नहीं
रब ने जितना दिया है मुझको उतने में खुश रहते हैं
चीज पराई अपना बताना मेरे बस की बात नहीं
कल तक जिसको प्यार किया था नाज़ उठाया था हँसकर
आज उसी पर हाथ उठाना मेरे बस की बात नहीं
ज़ख़्म भले ही देता है वो भूल के सारे रिश्तों को
लेकिन अपनों को तो रुलाना मेरे बस की बात नहीं
सारे शह्र में करता है वो मेरे प्यार की रुसवाई
लेकिन उसकी ग़लती बताना मेरे बस की बात नहीं
कौन ग़लत है कौन सही है यह तो वक़्त बताएगा
नाँदानों को यह समझाना मेरे बस की बात नहीं
डसते आए आज तलक जो “प्रीतम” छुप छुप कर मुझको
उन साँपों को दूध पिलाना मेरे बस की बात नहीं
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)