ग़ज़ल
——ग़ज़ल—–
ऐ काश! ये दिल तुमसे लगाया नहीं होता
तो मैं भी सरे-आम यूँ रुसवा नहीं होता
दिल टूट के इस तौर से बिखरा नहीं होता
गर उसकी निगाहों में ये शीशा नहीं होता
उल्फ़त पे यक़ीं मेरी तुझे आता मगर जब
आँखों पे तेरे झूठ का पर्दा नहीं होता
फुर्क़त है तड़प दर्द हैं उल्फ़त में हजारों
इस प्यार में मत पूछो कि क्या क्या नहीं होता
इक मेरे सिवा कौन तुम्हें पूछता दिलबर
दिल तेरी मुहब्बत का जो प्यासा नहीं होता
दर दर न भटकता मैं ज़माने में ऐ लोगों
ग़र ज़ख़्म मुहबबत में ये खाया नहीं होता
बदनाम न होता मैं ज़माने में ऐ “प्रीतम”
ग़र रोज़ तेरे कूचे में आया नहीं होता
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)