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18 Apr 2019 · 1 min read

ग़ज़ल

“आदमी”

2122 2122 212

ऐब दुनिया के गिनाता आदमी।
आपसी रंजिश बढ़ाता आदमी।

चंद सिक्कों में बिकी इंसानियत
भूल गैरत आजमाता आदमी।

चाल चल शतरंज की हैवान बन
भान सत्ता का दिलाता आदमी।

मुफ़लिसी पे वो रहम खाता नहीं
चोट सीने पे लगाता आदमी।

मोम बन ख़्वाहिश पिघलती हैं यहाँ
आग नफ़रत की लगाता आदमी।

घोल रिश्तों में ज़हर तन्हा रहा
बेच खुशियाँ घर जलाता आदमी।

गर्दिशें तकदीर में ‘रजनी’ मिलीं
ख्वाब आँखों से चुराता आदमी।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

1 Like · 234 Views
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