ग़ज़ल
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सिर्फ़ इस बात का गिला मुझको।
खुद-ब-खुद वो डुबा रहा मुझको।
बेवफ़ा यार गैर सा निकला
दाग़ मेरे दिखा रहा मुझको।
भूल जाती भुला नहीं पाई
अब नहीं कुछ भी सोचना मुझको।
देख दिल की खराब हालत को
बेतहाशा सता रहा मुझको।
हसरतें राख हो गईं मेरी
प्यार उसका रुला रहा मुझको।
इश्क का रोग भी नहीं भाया
हर कदम पर मिला दग़ा मुझको।
रेत जैसे फ़िसल रहे लम्हे
वक्त आँसू रुला रहा मुझको।
रास आई नहीं खुशी कोई
ज़िंदगी ने बहुत छला मुझको।
किस ख़ता की सज़ा मिली ‘रजनी’
कौन दे बद्दुआ गया मुझको।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर