ग़ज़ल
—–ग़ज़ल—-
बू-ए-गुल से आज घबराता हूँ मैं
खुद को काँटों से ही बहलाता हूँ मैं
फेर लेती हर कली मुझसे नज़र
गुलसितां में जब कभी जाता हूँ मैं
थाम लेते ख़ार दामन को मेरे
जैसे इनका ख़ास ही नाता हूँ मैं
ये जहां तो ज़ख़्म देकर हँस रहा
ज़ख़्म अपना ख़ुद ही सहलाता हूँमैं
राहतें भी पास आएँगी मेरे
इस भरम में ख़ुद को भरमाता हूँ मैं
जब से साया उठ गया माँ बाप का
दर-ब-दर की ठोकरें खाता हूँ मैं
लाख़ ग़म ने घेरा हो “प्रीतम” मगर
गीत ख़ुशियों के मगर गाता हूँ मैं
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)