ग़ज़ल
द्वेष-भाव के काफ़िले हैं ।
मज़बूरी में प्राण हिले हैं ।
अकिंचन की वेदना में ,
आशाओं के ग़ुल खिले हैं।
धैर्य मानव में नहीं अब ,
त्याग के ढहते किले हैं ।
जो कहेंगे सत्य, उनके ,
मौत के ही सिलसिले हैं ।
देखते हो, देख लो तुम ,
हर जग़ह शिक़वे-ग़िले हैं ।