ग़ज़ल- क़त्ल करने आज क़ातिल फिर शहर में आ गया।
क़त्ल करने आज क़ातिल फिर शहर में आ गया।
ज़िन्दगी की राह में वो धूप बनकर छा गया।।
क्या ख़बर थी लौटकर फिर से वो आएगा यहाँ।
बेवफ़ा निकला वो क़ातिल, फिर मैं धोका खा गया।।
पंख था परवाज़ था और थी फ़लक तक राह भी।
पर न जाने क्यूँ परिन्दा बेवज़ह घबरा गया।।
ज़िन्दगी ! इतनी कभी पहले न देखी बेरुख़ी।
माज़रा आख़िर है क्या, कुछ बोल तो हो क्या गया।।
दिल की बातों में ‘अकेला’ फिर न आएगा कभी।
एक धोका खा के उसको भी सम्भलना आ गया।।
अकेला इलाहाबादी