ग़ज़ल:-हर इक़ दिल में तिरंगा रचा-बसा होता….
किसी को सच का सही में अता पता होता।
ख़ुदा न आदमी का यूं ज़ुदा-ज़ुदा होता।।
हमारा मुल्क़ न टुकड़ों में यूं बटा होता।
न मेरे मुल्क़ का नक़्शा कटा-छटा होता।
रॅंगों को बांट के बनते न मज़हबी परचम।
हर इक़ दिल में तिरंगा रचा-बसा होता।।
करें वो राज तो मज़हब इज़ाद कर बैठे।
न फूट डालते धरती पे इक़ ख़ुदा होता।।
अखंडता न कभी खंड खंड ही होती।
नसीब दुनिया का भारत ने ही लिखा होता।।
लड़े न होते अगर हम हमारे अपनों से।
कभी गुलाम वतन ही नहीं हुआ होता।।
क़दम क़दम पे मिला होता साथ गर तेरा।
किसी ने हमको/(‘कल्प’) अपाहिज़ नहीं कहा होता।।
✍️अरविंद राजपूत ‘कल्प’