ग़ज़ल सगीर
अपनी काविश से जो मंजिल को पाने लगते हैं।
वो खारज़ार ही गुलशन बनाने लगते हैं।
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जिन्हे भी फिक्र नहीं है अवामी मसले की।
शोर संसद में वही तो मचाने लगते हैं।
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कोई भी रिश्ते तगाफुल से यूं नही बनते।
इन्हें बनाने में लोगों जमाने लगते हैं।
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कोई दिलचस्पी नहीं है हमारी हालत पर।
उन्हें तो इश्क के किस्से फसाने लगते हैं।
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खुदा बचाए ऐसे दोस्त ऐसे दुश्मन से।
दौरे गर्दिश में जो नज़रे चुराने लगते है।
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सगीर उसने दिए जख्म बेवफाई के।
बहुत भुलाओ मगर याद आने लगते हैं।