ग़ज़ल सगीर
आप मुरझाए हैं, क्यों सूखे गुलाबों की तरह।
किस लिए गुस्सा उतर आया अजाबों की तरह।
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पाए तकमील नहीं पहुंचा मुहब्बत क्योंकर।
इसलिए मैं हूं अधूरा मेरे ख्वाबों की तरह।
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मैंने तो दिल में छुपा रखा है उसको अपने।
उसकी चाहत है मगर वह है हिजाबों की तरह।
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तिश्नगी में चले आए थे लबे दरिया पर।
वह नजर आता है सहरा में सराबों की तरह।
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इतना आसान नहीं है मेरे जख्मों का हिसाब।
खत्म होता नही है सूदी हिसाबों की तरह।
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खत मेरे जब भी पढ़ोगे तुम्हे तड़पाएंगी।
मेरी यादें हैं मगर बंद किताबों की तरह।
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दास्तां इश्क की पढ़ते हैं सभी शाम ओ सहर।
इतना आसान नहीं पढ़ना निसाबों की तरह।
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मैं “सगीर” उसके सवालों में उलझ जाता हूं।
यार दिलचस्प हो तुम अपने जवाबों की तरह।