ग़ज़ल:- मेरे ही क़त्ल का इल्ज़ाम मेरे सर आया…
अजीब वाक़या तफ़्तीश मे नज़र आया
मेरे ही क़त्ल का इल्ज़ाम मेरे सर आया
अभी तो साॅंझ के पल्लू से बाॅंध कर आया
फलक पे शम्स़ ऐ कब दूसरा उभर आया
बहुत गुऱूऱ था सागर को अपने पानी पर
वो सूख जाएगा उसमें सुराख़ कर आया
अंधेरी रात सितारों की देख कर महफ़िल
अरे ये चांद ज़मीं पर कहाॅं उतर आया
बड़ा विशाल समंदर था मैं कहां कम था
मिला के अश्क़ मैं सागर में ख़ार भर आया
निहारूॅं राह मगर थक गईं मेरी ऑंखें
गया था जंग में वो लौट कर किधर आया
गिरेगा कितना ज़माने की ‘कल्प’ नज़रों से
ज़मीर बेच के गिरवी वो जिस्म धर आया
✍️ अरविंद राजपूत ‘कल्प’