ग़ज़ल- भुला दूं कैसे…
भुला दूं कैसे भला प्यारी झप्पियां उसकी।
सदाएं बनके खनकती है चूड़ियां उसकी।।
गिनाऊं कैसे जमाने को खूबियां उसकी।
हैं याद आती बहुत ही वो मस्तियाँ उसकी।।
सुकूं मिला था कभी जिन हसीन जुल्फों में।
तरस गया हूॅं कहां खोई बदलियां उसकी।।
लगाया पार जो मझधार से कभी मुझको ।
डुबाऊं कैसे बता आज कश्तियां उसकी।।
ख़तों में दिखता मुझे आज भी हंसी चेहरा।
जलाऊं कैसे भला आज चिट्ठियां उसकी।।
जो खिलखिलाए बहारों में शोखियां घोले।
जिगर है चाक मेरा सुनके सिसकियां उसकी।।
उलझ गया था मैं कमसिन हसीं अदाओं में।
न सुलझा पाया कभी मैं पहेलियां उसकी।।
हया से बर्फ़ में तब्दील ये शरारा हुआ ।
ले नाम ‘कल्प’ बुलाती सहेलियां उसकी।।
✍️अरविंद राजपूत ‘कल्प’