ग़ज़ल ( बाज़ रहो )
हसद से बाज़ रहो, नफ़रतों से बाज़ रहो.,
ख़ुदा के वास्ते इन हरकतों से बाज़ रहो.!
तबाह कर देंगी आदाते-मसलकी इक दिन.,
जो ख़ैर चाहो तो इन आदतों से बाज़ रहो.!
ये बै-हिजाबियाँ, ये बै-पर्दगी लतें हैं बुरी.,
ए बिन्ते-हव्वा सुनो इन लतों से बाज़ रहो.!
जहेज़ लेना भी लानत है और देना भी है बुरा.,
भला है इसमें कि इन लानतों से बाज़ रहो.!
कभी तो अपने गिरेबाँ में झाँक कर देखो.,
हमीं पे रखना सदा तौहमतों से बाज़ रहो.!
नसीब पाया-ऐ-तकमील ही न हो जिन को.,
तुम ऐसी ख़वाहिशों और चाहतों से बाज़ रहो.!
ज़माने भर में सबब जिन के हो रहो बदनाम.,
“ख़ुमार” ऐसी सभी सौहबतों से बाज़ रहो..!!
( ख़ुमार देहल्वी )
१४/०७/२०१६