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8 Jul 2023 · 1 min read

ग़ज़ल/नज़्म – फितरत-ए-इंसा…आज़ कोई सामान बिक गया नाम बन के

आज़ कोई सामान बिक गया नाम बनके,
और कोई इंसान बिक गया सामान बनके।

मोबाइल, कम्प्यूटर सबमें अहसास जग गए,
इंसान ही नहीं बस चल पाया इंसान बनके।

मेरी झोंपड़ी में कल आया था कोई अपना,
मुझसे वो बातें करता रहा मेहमान बन के।

एक बाप को ऐसे खाली कर के गए बच्चे,
चौराहे पे खड़ा हो जैसे लुटी दुकान बन के।

हक़ के लिए बोलेगा तो सबको खटकेगा,
सच सामने होगा रिश्तों का नुक़सान बन के।

तेरी ज़िन्दगी तू अपने माफ़िक क्यूँ जी रहा है,
हर कदम पे समाज बोलेगा फ़रमान बन के।

मेरी शानो शौकत ने सारे किवाड़ बंद किए ‘अनिल’,
अब ज़मीर मेरे अन्दर पड़ा है बेजान बन के।

©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507
9950538424
anilk1604@gmail.com

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