ग़ज़ल-दुनिया में दुनियादारी का बोझ
दुनिया में दुनियादारी का बोझ उठाना पड़ता है
और कई सपनों को चुपके से मर जाना पड़ता है
शिव हों या सुकरात ज़हर यूँ ही पीता है कौन मगर
आम आदमी को ये करतब रोज़ दिखाना पड़ता है
उन फूलों का ज़िक्र नहीं मिलता गुलशन के किस्सों में
जिन को अपनी शाख़ों पे खिल के मुरझाना पड़ता है
अपने बच्चों पर जब बात मुसीबत की आ जाए तो
हम तुम क्या हैं अच्छे अच्छों को घबराना पड़ता है
रोज़ मेरे दिल की ख़्वाहिश होती है ख़ुद से मिलने की
रोज़ मुझे अपने दिल को क्या क्या समझाना पड़ता है
ग़म पे भी इल्ज़ाम न आए आँखे नम कर देने का
तो जब आँसू आते हैं हमको मुस्काना पड़ता है