ग़ज़ल-दर्द पुराने निकले
उलझन को सुलझाने निकले
हम ख़ुद को दफ़नाने निकले
नए नए अल्फ़ाज़ पहन कर
कितने दर्द पुराने निकले
राम-राज के धोबी सारे
सबके मुँह से ताने निकले
पुरस्कार समझा था जिनको
वो सारे हर्जाने निकले
सुख-दुख जीवन की चादर के
यारो ताने-बाने निकले
हम भी कम हुशियार नहीं थे
तुम भी बहुत सयाने निकले
असली तो गुमनाम हुए हैं
नकली जाने-माने निकले
सच को सच कहने की ठानी
‘शाहिद’ भी दीवाने निकले