ग़ज़ल:- अपने बच्चे अब सयाने हो गये…
ग़ज़ल:- अपने बच्चे अब सियाने हो गये…
दर-ब-दर, हम बे-ठिकाने हो गये।
अपने बच्चे अब सयाने हो गये।।
खंडहर से हम पुराने हो गये।।
थे महल अब भूतखाने हो गये।।
घोंसला बुनती रही चिड़िया मगर।
आँधी आई ताने-बाने हो गये।।
आंख की अब रोशनी जाती रही।
राह तकते ये ज़माने हो गये।।
जो पिरोये हमने मोती ढूढकर
टूटी माला दाने-दाने हो गये।।
कल तलक़ पहचान थी ये वल्दियत।
अब तो वाल़िद जाने-माने हो गये।।
हैं वसीयत के लिए बस अब दुआ।
खाली अब सारे ख़ज़ाने हो गये।।
तोड़कर बंधन उड़े थे जो कभी।
एकजुट हिस्सा बटाने हो गये।।
पौंछते इक़ दूसरे के अश़्क हम।
‘कल्प’ क्यों बच्चे सियाने हो गये।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’