ग़ज़ल चाह जी भर कर मुझे
कह उठा मन, मिल गया है चाहतों का घर मुझे।
उसकी आँखों में दिखा जब प्यार का सागर मुझे।
मुस्कुरा कर कह रही है आज मुझसे ज़िंदगी,
चार पल की ज़िंदगी है चाह जी भर कर मुझे।
एक पल भी है न ऐसा जिसको अपना कह सकूँ,
ढूँढते रहते हैं ये घर और ये दफ़्तर मुझे।
पत्थरों के साथ रहकर आदमी पत्थर हुआ,
याद फिर आने लगा है गाँव का छप्पर मुझे।
ख़त्म होती ही नहीं हैं जिससे बातें प्यार की,
दिल में उसके कौन है मिलता नहीं उत्तर मुझे।