ग़ज़ल ( खुदा का रूप )
ग़ज़ल ( खुदा का रूप )
गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे जिस तरह से यार है
संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सौ बेकार हैं
सोचते है जब कभी हम क्या मिला क्या खो गया
दिल जिगर साँसें है अपनी पर न कुछ अधिकार है
याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते हैं हम
प्यार से बह दर्द दे दें तो हमें स्वीकार है
जिस जगह पर पग धरा है उस जगह खुशबु मिली है
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है
ये ख्बाहिश अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे
क्या मदन इसको ही कहते लोग अक्सर प्यार हैं
ग़ज़ल ( खुदा का रूप )
मदन मोहन सक्सेना