ग़ज़ल – ख़्वाब मेरा
ख़्वाब मेरा आज का अच्छा लगा
इक हकीकत से उठा परदा लगा
तेरे आने की रिवाइत थी ज़ुदा
साथ में बढ़ता मेरा रुतबा लगा
रोशनी से डर रहे साये बहुत
इन ख़यालों से दिया बुझता लगा
मैं तो हूँ इसरारे उल्फ़त की ज़बाँ
तेरा अपना कहना इक सज़दा लगा
मुंतशिर था जब तलक न साथ था
पाके तुमको खुद का मैं हिस्सा लगा
शुक्रिया अल्फ़ाज तेरा मिल गया
दर्द भी मुझको मेरा नगमा लगा
मैं ‘महज’ हूँ जिन्दगी ए जुस्तज़ू
दरमियां मेरे मुझे तू खुदा लगा